Chapter 11

विश्वरूपदर्शनयोग

भगवद गीता का ग्यारहवा अध्याय विश्वरूपदर्शनयोग है। इस अध्याय में, अर्जुन कृष्ण को अपने विश्व रूप को प्रकट करने का अनुरोध करते हैं जो की सारे विश्वों अथवा संपूर्ण अस्तित्व का स्त्रोत है। भगवान कृष्ण के शरीर में पूरी सृष्टि को देखने में सक्षम होने के लिए अर्जुन को दिव्य दृष्टि दी जाती है।

55 Verses

VERSE 1
अर्जुन ने कहा! मुझ पर करुणा कर आप द्वारा प्रकट किए गए परम गुह्य आध्यात्मिक ज्ञान को सुनकर अब मेरा मोह दूर हो गया है।
VERSE 2
मैने आपसे सभी प्राणियों की उत्पत्ति और संहार के संबंध में विस्तार से सुना है। हे कमल नयन! मैंने आपकी अविनाशी महिमा को भी जाना है।
VERSE 3
हे परमेश्वर! तुम वास्तव में वही हो जिसका आपने मेरे समक्ष वर्णन किया है!, किन्तु हे परम पुरुषोत्तम! मैं आपके विराट रूप को देखने का इच्छुक हूँ।
VERSE 4
सभी अप्रकट शक्ति के स्वामी हे भगवान! यदि आप यह सोचते हैं कि मैं इसे देखने में समर्थ हूँ तब मुझे अपना अविनाशी विराट स्वरूप दिखाने की कृपा करें।
VERSE 5
परमेश्वर ने कहा-हे पार्थ! अब तुम मेरे सैकड़ों और हजारों अद्भुत दिव्य रूपों को विभिन्न आकारों और बहुरंगी रूपों में देखो।
VERSE 6
हे भरतवंशी! लो अब आदिति के (बारह) पुत्रों, (आठ) वसुओं (ग्यारह) रुद्रों, (दो) अश्विनी कुमारों और उसी प्रकार से (उन्चास) मरुतों और पहले कभी न प्रकट हुए अन्य आश्चर्यों को मुझमें देखो।
VERSE 7
हे अर्जुन! सभी चर और अचर सहित समस्त ब्रह्माण्डों को एक साथ मेरे विश्वरूप में देखो। इसके अतिरिक्त तुम कुछ और भी देखना चाहो तो वह सब मेरे विश्वव्यापी रूप में देखो।
VERSE 8
परन्तु तुम अपनी आंखों से मेरे दिव्य ब्रह्माण्डीय स्वरूप को नहीं देख सकते हो। इसलिए मैं तुम्हें दिव्य दृष्टि प्रदान करता हूँ। अब मेरी दिव्य विभूतियों को देखो।
VERSE 9
संजय ने कहा-हे राजन! इस प्रकार से कहकर योग के स्वामी महा योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अर्जुन को दिव्य विश्वरूप दिखाया।
VERSE 10
अर्जुन ने भगवान के दिव्य विराट रूप में असंख्य मुख और आंखों को देखा। उनका रूप अनेक दैवीय आभूषण से अलंकृत था और कई प्रकार के दिव्य शस्त्रों को उठाए हुए था।
VERSE 11
उन्होंने उस शरीर पर अनेक मालाएँ और वस्त्र धारण किए हुए थे जिस पर कई प्रकार की दिव्य मधुर सुगन्धिया लगी थी। वह स्वयं को आश्चर्यमय और अनंत भगवान के रूप में प्रकट कर रहे थे जिनका मुख सर्वव्याप्त था।
VERSE 12
यदि आकाश में हजारों सूर्य एक साथ उदय होते हैं तो भी उन सबका प्रकाश भगवान के दिव्य तेजस्वी रूप की समानता नहीं कर सकता।
VERSE 13
अर्जुन ने देवों के देव के उस दिव्य शरीर में एक ही स्थान पर स्थित समस्त ब्रह्माण्डों को देखा।
VERSE 14
विश्व रूप दर्शन योग तब आश्चर्य में डूबे अर्जुन के शरीर के रोंगटे खड़े हो गए और वह मस्तक को झुकाए भगवान के समक्ष हाथ जोड़कर इस प्रकार प्रार्थना करने लगा।
VERSE 15
अर्जुन ने कहा-मैंने आपके शरीर में सभी देवताओं और विभिन्न प्रकार के जीवों को देखा। मैंने वहाँ कमल पर आसीन ब्रह्मा और शिव तथा सभी ऋषियों और स्वर्ग के सर्पो को देखा।
VERSE 16
मैं सभी दिशाओं में अनगिनत भुजाएँ, उदर, मुँह और आँखों के साथ आपके सर्वत्र फैले हुए अनंतरूप को देखता हूँ। हे ब्रह्माण्ड के स्वामी! आपका रूप अपने आप में अनंत है, मुझे आप में कोई आरम्भ, मध्य और अंत नहीं दिखता।
VERSE 17
विश्व रूप दर्शन योग मैं मुकुट से सुशोभित चक्र और गदा से सुसज्जित शस्त्रों के साथ सर्वत्र दीप्तिमान लोक के रूप में आपके रूप को देख रहा हूँ। इस चमचमाती अग्नि में आपके तेज को देख पाना कठिन है जो सभी दिशाओं से प्रस्फुटित होने वाले सूर्य के प्रकाश की भांति है।
VERSE 18
मैं आपको परम अविनाशी मानता हूँ। आप ही धार्मिक ग्रंथों द्वारा ज्ञात होने वाले परम सत्य हो। आप समस्त सृष्टि के परम आधार हो और सनातन धर्म के नित्य पालक और रक्षक हो और अविनाशी परम प्रभु हो।
VERSE 19
आप आदि, मध्य और अंत से रहित हैं और आपकी शक्तियों का कोई अंत नहीं है। सूर्य और चन्द्रमा आप के नेत्र हैं और अग्नि आपके मुख के तेज के समान है और मैं आपके तेज से समस्त ब्रह्माण्ड को जलते देख रहा हूँ।
VERSE 20
हे सभी जीवों के परम स्वामी! स्वर्ग और पृथ्वी के बीच के स्थान और सभी दिशाओं के बीच आप अकेले ही व्याप्त हैं। मैंने देखा है कि आपके अद्भुत और भयानक रूप को देखकर तीनों लोक भय से काँप रहे हैं।
VERSE 21
स्वर्ग के सभी देवता आप में प्रवेश होकर आपकी शरण ग्रहण कर रहे हैं और कुछ भय से हाथ जोड़कर आपकी स्तुति कर रहे हैं। महर्षि और सिद्धजन पवित्र स्रोतों का पाठ कर और अनेक प्रार्थनाओं के साथ आपकी स्तुति कर रहे हैं।
VERSE 22
रुद्र, आदित्य, वसु, साध्यगण, विश्वदेव, दोनों अश्विनी कुमार, मरुत, पित्तर, गन्धर्व, यक्ष, असुर तथा सभी सिद्धजन आपको आश्चर्य से देख रहे हैं।
VERSE 23
हे सर्वशक्तिमान भगवान! अनेक मुख, नेत्र, भुजा, जांघे, पाँव, पेट तथा भयानक दांतों सहित आपके विकराल रूप को देखकर समस्त लोक भय से त्रस्त है और उसी प्रकार से मैं भी।
VERSE 24
हे विष्णु भगवान! आकाश को स्पर्श करते हुए बहु रंगों, दीप्तिमान, मुख फैलाए और चमकती हुई असंख्य आंखों से युक्त आपके रूप को देखकर मेरा हृदय भय से कांप रहा है और मैंने अपना सारा धैर्य और मानसिक संतुलन खो दिया है।
VERSE 25
प्रलय के समय की प्रचण्ड अग्नि के सदृश तुम्हारे अनेक मुखों के विकराल दांतों को देखकर मैं भूल गया हूँ कि मैं कहाँ हूँ और मुझे कहाँ जाना है। हे देवेश! आप ब्रह्माण्ड के आश्रयदाता हैं कृपया मुझ पर करुणा करो।
VERSE 26
मैं धृतराष्ट्र के सभी पुत्रों को उनके सहयोगी राजाओं और भीष्म, द्रोणाचार्य, कर्ण तथा हमारे पक्ष के सेना नायकों सहित
VERSE 27
आपके विकराल मुख में प्रवेश करता देख रहा हूँ। इनमें से कुछ के सिरों को मैं आपके विकराल दांतों के बीच पिसता हुआ देख रहा हूँ।
VERSE 28
जिस प्रकार से नदियों की कई लहरें समुद्र में प्रवेश करती हैं उसी प्रकार से ये सब महायोद्धा आपके धधकते मुख में प्रवेश कर रहे हैं।
VERSE 29
जिस प्रकार से पतंगा तीव्र गति से अग्नि में प्रवेश कर जलकर भस्म हो जाता है उसी प्रकार से ये सेनाएँ अपने विनाश के लिए तीव्र गति से आपके मुख में प्रवेश कर रही हैं।
VERSE 30
तुम अपनी तीक्ष्ण जिह्वा से समस्त दिशाओं के जीव समूहों को चाट रहे हो और उन्हें अपने प्रज्जवलित मुखों में निगल रहे हो। हे विष्णु! आप अपने सर्वत्र फैले प्रचंड तेज की किरणों से समस्त ब्रह्माण्ड को भीषणता से झुलसा रहे हो।
VERSE 31
हे देवेश! कृपया मुझे बताएं कि अति उग्र रूप में आप कौन हैं? मैं आपको प्रणाम करता हूँ। कृपया मुझ पर करुणा करें। आप समस्त सृष्टियों से पूर्व आदि भगवान हैं। मैं आपको जानना चाहता हूँ और मैं आपकी प्रकृति और प्रयोजन को नहीं समझ पा रहा हूँ।
VERSE 32
परम प्रभु ने कहा-“मैं प्रलय का मूलकारण और महाकाल हूँ जो जगत का संहार करने के लिए आता है। तुम्हारे युद्ध में भाग लेने के बिना भी युद्ध की व्यूह रचना में खड़े विरोधी पक्ष के योद्धा मारे जाएंगे।"
VERSE 33
इसलिए उठो युद्ध करो और यश अर्जित करो। अपने शत्रुओं पर विजय पाकर समृद्ध राज्य का भोग करो। ये सब योद्धा पहले ही मेरे द्वारा मारे जा चुके हैं। हे श्रेष्ठ धनुर्धर! तुम तो मेरे कार्य को सम्पन्न करने का केवल निमित्त मात्र हो।
VERSE 34
द्रोणाचार्य, भीष्म, जयद्रथ, कर्ण और अन्य महायोद्धा पहले ही मेरे द्वारा मारे जा चुके हैं। इसलिए बिना विक्षुब्ध हुए इनका वध करो, केवल युद्ध करो और तुम अपने शत्रुओं पर विजय पाओगे।
VERSE 35
संजय ने कहा- केशव के इन वचनों को सुनकर अर्जुन ने भय से कांपते हुए अपने दोनों हाथों को जोड़कर श्रीकृष्ण को नमस्कार किया और अवरुद्ध स्वर में भयभीत होकर श्रीकृष्ण से इस प्रकार कहा।
VERSE 36
अर्जुन ने कहाः हे हृषीकेश! ये उचित है कि आपके नाम, श्रवण और यश गान से संसार हर्षित होता है। असुर गण आपसे भयभीत होकर सभी दिशाओं की ओर भागते रहते हैं और सिद्ध महात्माओं के समुदाय आपको नमस्कार करते हैं।
VERSE 37
हे सर्वश्रेष्ठ! आप ब्रह्मा से श्रेष्ठ और आदि सृष्टा हो तब फिर वह आपको नमस्कार क्यों न करें? हे अनंत, हे देवेश, हे जगत के आश्रयदाता आप सभी कारणों के कारण और अविनाशी हैं। आप व्यक्त और अव्यक्त से परे अविनाशी सत्य हो।
VERSE 38
आप आदि सर्वात्मा दिव्य सनातन स्वरूप हैं, आप इस ब्रह्माण्ड के परम आश्रय हैं। आप ही सर्वज्ञाता और जो कुछ भी जानने योग्य है वह सब आप ही हो। आप ही परम धाम हो। हे अनंत रूपों के स्वामी! केवल आप ही समस्त ब्रह्माण्ड में व्याप्त हो।
VERSE 39
आप वायु, यम, अग्नि, जल और चन्द्रमा के देवता हैं। आप ब्रह्मा के पिता और सभी जीवों के प्रपितामह हैं। अतः मैं आपको हजारों बार और बार-बार नमस्कार करता हूँ।
VERSE 40
हे अनंत शक्तियों के स्वामीं। आपको आगे और पीछे और वास्तव में सभी ओर से नमस्कार है आप असीम पराक्रम और शक्ति के स्वामी हैं और सर्वव्यापी हैं। अतः आप सब कुछ हैं।
VERSE 41
आपको अपना मित्र मानते हुए मैंने धृष्टतापूर्वक आपको हे कृष्ण, हे यादव, हे प्रिय मित्र कहकर संबोधित किया क्योंकि मुझे आपकी महिमा का ज्ञान नहीं था।
VERSE 42
उपेक्षित भाव से और प्रेमवश होकर यदि उपहास करते हुए मैंने कई बार खेलते हुए, विश्राम करते हुए, बैठते हुए, खाते हुए, अकेले में या अन्य लोगों के समक्ष आपका कभी अनादर किया हो तो उन सब अपराधों के लिए हे अचिन्त्य! मैं आपसे क्षमा याचना करता हूँ।
VERSE 43
आप समस्त चर-अचर के स्वामी और समस्त ब्रह्माण्डों के जनक हैं। आप परम पूजनीय आध्यात्मिक गुरु हैं। हे अतुल्य शक्ति के स्वामी! जब समस्त तीनों लोकों में आपके समतुल्य कोई नहीं है तब आप से बढ़कर कोई कैसे हो सकता है।
VERSE 44
इसलिए हे पूजनीय भगवान! मैं आपके समक्ष नतमस्तक होकर और साष्टांग प्रणाम करते हुए आपकी कृपा प्राप्त करने की याचना करता हूँ। जिस प्रकार पिता पुत्र के हठ को सहन करता है, मित्र इष्टता को और प्रियतम अपनी प्रेयसी के अपराध को क्षमा कर देता है उसी प्रकार से कृपा करके मुझे मेरे अपराधों के लिए क्षमा कर दो।
VERSE 45
पहले कभी न देखे गए आपके विराट रूप का अवलोकन कर मैं अत्यधिक हर्षित हो रहा हूँ और साथ ही साथ मेरा मन भय से कांप रहा है। इसलिए हे देवेश, हे जगन्नाथ! कृपया मुझ पर दया करें और मुझे पुनः अपना आनन्दमयी स्वरूप दिखाएँ।
VERSE 46
हे सहस्र बाहु! यद्यपि आप समस्त सृष्टि में अभिव्यक्त हैं किन्तु मैं तुम्हारे मुकुटधारी चक्र और गदा उठाए हुए चतुर्भुज नारायण रूप के दर्शन करना चाहता हूँ।
VERSE 47
आनन्दमयी भगवान ने कहा-हे अर्जुन! तुम पर प्रसन्न होकर मैनें अपनी योगमाया शक्ति द्वारा तुम्हें अपना दीप्तिमान अनन्त और आदि विश्व रूप दिखाया। तुमसे पहले किसी ने मेरे इस विराट रूप को नहीं देखा।
VERSE 48
हे कुरुश्रेष्ठ! न तो वेदों के अध्ययन से और न ही यज्ञ, कर्मकाण्डों, दान, पुण्य, यहाँ तक कि कठोर तप करने से भी किसी जीवित प्राणी ने मेरे विराटरूप को कभी देखा है जिसे तुम देख चुके हो।
VERSE 49
मेरे भयानक रूप को देखकर तुम न तो भयभीत हो और न ही मोहित हो। भयमुक्त और प्रसन्नचित्त होकर मेरे पुरुषोत्तम रूप को देखो।
VERSE 50
संजय ने कहाः ऐसा कहकर वासुदेव के करुणामय पुत्र ने पुनः अपना चतुर्भुज रूप प्रकट किया और फिर अपना दो भुजाओं वाला सुन्दर रूप प्रदर्शित कर भयभीत अर्जुन को सांत्वना दी।
VERSE 51
अर्जुन ने कहा-हे जनार्दन! आपके दो भुजा वाले मनोहर मानव रूप को देखकर मुझ में आत्मसंयम लौट आया है और मेरा चित्त स्थिर होकर सामान्य अवस्था में आ गया है।
VERSE 52
परम प्रभु ने कहा-मेरे जिस रूप का तुम अवलोकन कर रहे हो उसे देख पाना अति दुष्कर है। यहाँ तक कि स्वर्ग के देवताओं को भी इसका दर्शन करने की उत्कंठा होती है।
VERSE 53
मेरे इस रूप को न तो वेदों के अध्ययन, न ही तपस्या, दान और यज्ञों जैसे साधनों द्वारा देखा जा सकता है जैसाकि तुमने देखा है।
VERSE 54
हे अर्जुन! मैं जिस रूप में तुम्हारे समक्ष खड़ा हूँ उसे केवल अनन्य भक्ति से जाना जा सकता है। हे शत्रुहंता! इस प्रकार मेरी दिव्य दृष्टि प्राप्त होने पर ही कोई वास्तव में मुझमें एकीकृत हो सकता है।
VERSE 55
वे जो मेरे प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं, जो मुझ पर ही भरोसा करते हैं, आसक्ति रहित रहते हैं और किसी भी प्राणी से द्वेष नहीं रखते। ऐसे भक्त निश्चित रूप से मुझे प्राप्त करते हैं।