VERSE 1
परम प्रभु ने कहा! वे मनुष्य जो कर्मफल की कामना से रहित होकर अपने नियत कर्मों का पालन करते हैं वे वास्तव में संन्यासी और योगी होते हैं, न कि वे जो अग्निहोत्र यज्ञ संपन्न नहीं करते अर्थात अग्नि नहीं जलाते और शारीरिक कर्म नहीं करते।
VERSE 2
जिसे संन्यास के रूप में जाना जाता है वह योग से भिन्न नहीं है। कोई भी सांसारिक कामनाओं का त्याग किए बिना संन्यासी नहीं बन सकता।
VERSE 3
जो योग में पूर्णता की अभिलाषा करते हैं उनके लिए बिना आसक्ति के कर्म करना साधन कहलाता है और वे योगी जिन्हें पहले से योग में सिद्धि प्राप्त है, उनके लिए साधना में परमशांति को साधन कहा जाता है।
VERSE 4
जब कोई मनुष्य न तो इन्द्रिय विषयों में और न ही कर्मों के अनुपालन में आसक्त होता है और कर्म फलों की सभी इच्छाओं का त्याग करने के कारण ऐसे मनुष्य को योग मार्ग में आरूढ़ कहा जाता है।
VERSE 5
मन की शक्ति द्वारा अपना आत्म उत्थान करो और स्वयं का पतन न होने दो। मन जीवात्मा का मित्र और शत्रु भी हो सकता है।
VERSE 6
जिन्होंने मन पर विजय पा ली है, मन उनका मित्र है किन्तु जो ऐसा करने में असफल होते हैं मन उनके शत्रु के समान कार्य करता है।
VERSE 7
वे योगी जिन्होंने मन पर विजय पा ली है वे शीत-ताप, सुख-दुख और मान-अपमान के द्वंद्वों से ऊपर उठ जाते हैं। ऐसे योगी शान्त रहते हैं और भगवान की भक्ति के प्रति उनकी श्रद्धा अटल होती है।
VERSE 8
वे योगी जो ज्ञान और विवेक से संतुष्ट होते हैं और जो इन्द्रियों पर विजय पा लेते हैं, वे सभी परिस्थितियों में अविचलित रहते हैं। वे धूल, पत्थर और सोने को एक समान देखते हैं।
VERSE 9
योगी शुभ चिन्तकों, मित्रों, शत्रुओं पुण्यात्माओं और पापियों को निष्पक्ष होकर समान भाव से देखते हैं। इस प्रकार जो योगी मित्र, सहयोगी, शत्रु को समदृष्टि से देखते हैं और शत्रुओं एवं सगे संबंधियों के प्रति तटस्थ रहते हैं तथा पुण्यात्माओं और पापियों के बीच निष्पक्ष रहते हैं, वे मनुष्यों के मध्य विशिष्ट माने जाते हैं।
VERSE 10
योग की अवस्था प्राप्त करने के इच्छुक साधकों को चाहिए कि वे एकान्त स्थान में रहें और मन एवं शरीर को नियंत्रित कर निरन्तर भगवान के चिन्तन में लीन रहें तथा समस्त कामनाओं और सुखों का संग्रह करने से मुक्त रहें।
VERSE 11
योगाभ्यास के लिए स्वच्छ स्थान पर भूमि पर कुशा बिछाकर उसे मृगछाला से ढककर और उसके ऊपर वस्त्र बिछाना चाहिए। आसन बहुत ऊँचा या नीचा नहीं होना चाहिए।
VERSE 12
योगी को उस आसन पर दृढ़तापूर्वक बैठ कर मन को शुद्ध करने के लिए सभी प्रकार के विचारों तथा क्रियाओं को नियंत्रित कर मन को एक बिन्दु पर स्थिर करते हुए साधना करनी चाहिए।
VERSE 13
उसे शरीर, गर्दन और सिर को सीधा रखते हुए और आँखों को हिलाए बिना नासिका के अग्र भाग पर दृष्टि स्थिर करनी चाहिए।
VERSE 14
इस प्रकार शांत, भयरहित और अविचलित मन से ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा में निष्ठ होकर उस प्रबुद्ध योगी को मन से मेरा चिन्तन करना और केवल मुझे ही अपना परम लक्ष्य बनाना चाहिए।
VERSE 15
इस प्रकार मन को संयमित रखने वाला योगी मन को निरन्तर मुझमें तल्लीन कर निर्वाण प्राप्त करता है और मुझे में स्थित होकर परम शांति पाता है।
VERSE 16
हे अर्जुन! जो लोग बहुत अधिक भोजन ग्रहण करते हैं या अल्प भोजन ग्रहण करते हैं, बहुत अधिक या कम नींद लेते हैं, वे योग में सफल नहीं हो सकते।
VERSE 17
लेकिन जो आहार और आमोद-प्रमोद को संयमित रखते हैं, कर्म को संतुलित रखते हैं और निद्रा पर नियंत्रण रखते हैं, वे योग का अभ्यास कर अपने दुखों को कम कर सकते हैं।
VERSE 18
पूर्ण रूप से अनुशासित होकर जो अपने मन को स्वार्थों एवं लालसाओं से हटाना सीख लेते हैं और इसे अपनी आत्मा के सर्वोत्कृष्ट लाभ में लगा देते हैं, ऐसे मनुष्यों को योग में स्थित कहा जा सकता है और वे सभी प्रकार की इन्द्रिय लालसाओं से मुक्त होते हैं।
VERSE 19
जिस प्रकार वायुरहित स्थान में दीपक की ज्योति झिलमिलाहट नहीं करती उसी प्रकार से संयमित मन वाला योगी आत्म चिन्तन में स्थिर रहता है।
VERSE 20
जब मन भौतिक क्रियाओं से दूर हट कर योग के अभ्यास से स्थिर हो जाता है तब योगी शुद्ध मन से आत्म-तत्त्व को देख सकता है और आंतरिक आनन्द में मगन हो सकता है।
VERSE 21
योग में चरम आनन्द की अवस्था को समाधि कहते हैं जिसमें मनुष्य असीम दिव्य आनन्द प्राप्त करता है और इसमें स्थित मनुष्य परम सत्य के पथ से विपथ नहीं होता।
VERSE 22
ऐसी अवस्था प्राप्त कर कोई और कुछ श्रेष्ठ पाने की इच्छा नहीं करता। ऐसी सिद्धि प्राप्त कर कोई मनुष्य बड़ी से बड़ी आपदाओं में विचलित नहीं होता।
VERSE 23
दख के संयोग से वियोग की अवस्था को योग के रूप में जाना जाता है। इस योग का दृढ़तापूर्वक कृतसंकल्प के साथ निराशा से मुक्त होकर पालन करना चाहिए।
VERSE 24
संसार के चिन्तन से उठने वाली सभी इच्छाओं का पूर्ण रूप से त्याग कर हमें मन द्वारा इन्द्रियों पर सभी ओर से अंकुश लगाना चाहिए।
VERSE 25
धीरे-धीरे निश्चयात्मक बुद्धि के साथ मन केवल भगवान में स्थिर हो जाएगा और भगवान के अतिरिक्त कुछ नहीं सोचेगा।
VERSE 26
जब और जहाँ भी मन बेचैन और अस्थिर होकर भटकने लगे तब उसे वापस लाकर स्थिर करते हुए भगवान की ओर केन्द्रित करना चाहिए।
VERSE 27
जिस योगी का मन शांत हो जाता है और जिसकी वासनाएँ वश में हो जाती हैं एवं जो निष्पाप है तथा जो प्रत्येक वस्तु का संबंध भगवान के साथ जोड़कर देखता है, उसे अलौकिक आनन्द प्राप्त होता है।
VERSE 28
इस प्रकार आत्म संयमी योगी आत्मा को भगवान में एकीकृत कर भौतिक कल्मष से मुक्त हो जाता है और निरन्तर परमेश्वर में तल्लीन होकर उसकी दिव्य प्रेममयी भक्ति में परम सुख प्राप्त करता है।
VERSE 29
सच्चा योगी अपनी चेतना को भगवान के साथ एकीकृत कर समान दृष्टि से सभी जीवों में भगवान और भगवान को सभी जीवों में देखता है।
VERSE 30
वे जो मुझे सर्वत्र और प्रत्येक वस्तु में देखते हैं, मैं उनके लिए कभी अदृश्य नहीं होता और वे मेरे लिए अदृश्य नहीं होते।
VERSE 31
जो योगी मुझमें एकनिष्ठ हो जाता है और परमात्मा के रूप में सभी प्राणियों में मुझे देखकर श्रद्धापूर्वक मेरी भक्ति करता है, वह सभी प्रकार के कर्म करता हुआ भी केवल मुझमें स्थित हो जाता है।
VERSE 32
मैं उन पूर्ण सिद्ध योगियों का सम्मान करता हूँ जो सभी जीवों में वास्तविक समानता के दर्शन करते हैं और दूसरों के सुखों और दुखों के प्रति ऐसी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं, जैसे कि वे उनके अपने हों।
VERSE 33
अर्जुन ने कहा-हे मधुसूदन! आपने जिस योगपद्धति का वर्णन किया वह मेरे लिए अव्यावहारिक और अप्राप्य है क्योंकि मन चंचल है।
VERSE 34
हे कृष्ण! क्योंकि मन अति चंचल, अशांत, हठी और बलवान है। मुझे वायु की अपेक्षा मन को वश में करना अत्यंत कठिन लगता है।
VERSE 35
भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा-हे महाबाहु कुन्तीपुत्र! जो तुमने कहा वह सत्य है, मन को नियंत्रित करना वास्तव में कठिन है। किन्तु अभ्यास और विरक्ति द्वारा इसे नियंत्रित किया जा सकता है।
VERSE 36
जिनका मन निरंकुश है उनके लिए योग करना कठिन है। लेकिन जिन्होंने मन को नियंत्रित करना सीख लिया है और जो समुचित ढंग से निष्ठापूर्वक प्रयास करते हैं, वे योग में पूर्णता प्राप्त कर सकते हैं। यह मेरा मत है।
VERSE 37
अर्जुन ने कहाः हे कृष्ण! योग में असफल उस योगी का भाग्य क्या होता है जो श्रद्धा के साथ इस पथ पर चलना प्रारम्भ तो करता है किन्तु जो अस्थिर मन के कारण भरपूर प्रयत्न नहीं करता और इस जीवन में योग के लक्ष्य तक पहुँचने में असमर्थ रहता है।
VERSE 38
हे महाबाहु कृष्ण! क्या योग से पथ भ्रष्ट ऐसा व्यक्ति भौतिक एवं आध्यात्मिक सफलताओं से वंचित नहीं होता और छिन्न-भिन्न बादलों की भाँति नष्ट नहीं हो जाता जिसके परिणामस्वरूप वह किसी भी लोक में स्थान नहीं पाता?
VERSE 39
हे कृष्ण! कृपया मेरे इस सन्देह का पूर्ण निवारण करें क्योंकि आपके अतिरिक्त कोई अन्य नहीं है जो ऐसा कर सके।
VERSE 40
परमेश्वर श्रीकृष्ण ने कहाः हे पृथा पुत्र! आध्यात्मिक पथ का अनुसरण करने वाले योगी का न तो इस लोक में और न ही परलोक में विनाश होता है। मेरे प्रिय मित्र। भगवद्प्राप्ति के मार्ग पर चलने वाले को बुराई पराजित नहीं कर सकती।
VERSE 41
असफल योगी मृत्यु के पश्चात पुण्य आत्माओं के लोक में जाते हैं। अनेक वर्षों तक वहाँ निवास करने के पश्चात वे पृथ्वी पर कुलीन या धनवानों के कुल में पुनः जन्म लेते हैं
VERSE 42
जब वे दीर्घकाल तक योग के अभ्यास से उदासीन हो चुके होते हैं तब उनका जन्म दिव्य ज्ञान से सम्पन्न परिवारों में होता है। संसार में ऐसा जन्म अत्यंत दुर्लभ है।
VERSE 43
हे कुरुवंशी! ऐसा जन्म लेकर वे पिछले जन्म के ज्ञान को पुनः जागृत करते हैं और योग में पूर्णता के लिए और अधिक कड़ा परिश्रम करते हैं।
VERSE 44
वास्तव में वे अपने पूर्व जन्मों के आत्मसंयम के बल पर अपनी इच्छा के विरूद्ध स्वतः भगवान की ओर आकर्षित होते हैं। ऐसे जिज्ञासु साधक स्वाभाविक रूप से शास्त्रों के कर्मकाण्डों से ऊपर उठ जाते हैं।
VERSE 45
पिछले कई जन्मों में संचित पुण्यकर्मों के साथ जब ये योगी आध्यात्मिक मार्ग में आगे उन्नति करने हेतु निष्ठापूर्वक प्रयत्न में लीन रहते हैं तब वे सांसारिक कामनाओं से शुद्ध हो जाते हैं और इसी जीवन में पूर्णताः प्राप्त कर लेते हैं।
VERSE 46
एक योगी तपस्वी से, ज्ञानी से और सकाम कर्मी से भी श्रेष्ठ होता है। अतः हे अर्जुन! तुम सभी प्रकार से योगी बनो।
VERSE 47
सभी योगियों में से जिनका मन सदैव मुझ में तल्लीन रहता है और जो अगाध श्रद्धा से मेरी भक्ति में लीन रहते हैं उन्हें मैं सर्वश्रेष्ठ मानता हूँ।