Chapter 13

क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभागयोग

भगवद गीता का तेरवाह अध्याय क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभागयोग है। क्षेत्र शब्द का मतलब भूमि और क्षेत्ररक्षण का मतलब क्षेत्र का जानकार है। हमारा भौतिक शरीर क्षेत्र के सामान है और हमारी अमर आत्मा क्षेत्र के जानकार के सामान है। इस अध्याय में, कृष्ण भौतिक शरीर और अमर आत्मा के बीच भेद करते हैं। वह बताते हैं कि भौतिक शरीर अस्थायी और विनाशकारी है जबकि आत्मा स्थायी और शाश्वत है। भौतिक शरीर नष्ट हो सकता है लेकिन आत्मा कभी भी नष्ट नहीं हो सकती। यह अध्याय फिर भगवान का वर्णन करता है, जो की सर्वोच्च आत्मा हैं। सभी व्यक्तिगत आत्माएं सर्वोच्च आत्मा से उत्पन्न हुई हैं। जो स्पष्ट रूप से शरीर, आत्मा और सर्वोच्च आत्मा के बीच अंतर को समझ लेता है वह परमात्मा को प्राप्त कर लेता है।

35 Verses

VERSE 1
अर्जुन ने कहा-हे केशव! मैं यह जानने का इच्छुक हूँ कि प्रकृति क्या है और पुरुष क्या है तथा क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ क्या है? मैं यह भी जानना चाहता हूँ कि सच्चा ज्ञान क्या है और इस ज्ञान का लक्ष्य क्या है?
VERSE 2
परम पुरुषोतम भगवान ने कहाः हे अर्जुन! इस शरीर को क्षेत्र (कर्म क्षेत्र) के रूप में परिभाषित किया गया है और जो इस शरीर को दोनों का सत्य जानने वाले ऋषियों के माध्यम से जान जाता है उसे क्षेत्रज्ञ (शरीर का ज्ञाता) कहा जाता है।
VERSE 3
हे भरतवंशी! मैं समस्त शरीरों के कर्म क्षेत्रों का भी ज्ञाता हूँ। कर्म क्षेत्र के रूप में शरीर, आत्मा तथा भगवान को इस शरीर के ज्ञाता के रूप में जान लेना मेरे मतानुसार सच्चा ज्ञान है।
VERSE 4
सुनो अब मैं तुम्हें समझाऊंगा कि कर्म क्षेत्र और इसकी प्रकृति क्या है, इसमें कैसे परिवर्तन होते है और यह कहाँ से उत्पन्न हुआ है, कर्म क्षेत्र का ज्ञाता कौन है और उसकी शक्तियाँ क्या हैं?
VERSE 5
महान ऋषियों ने अनेक रूप से क्षेत्र का और क्षेत्र के ज्ञाता के सत्य का वर्णन किया है। इसका उल्लेख विभिन्न वैदिक स्रोतों और विशेष रूप से ब्रह्मसूत्र में ठोस तर्क और निर्णयात्मक साक्ष्यों के साथ प्रकट किया गया है।
VERSE 6
कर्म क्षेत्र पाँच महातत्त्वों-अहंकार, बुद्धि और अव्यक्त मूल तत्त्व, ग्यारह इन्द्रियों (पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियों और मन) और इन्द्रियों के पाँच विषयों से निर्मित है।
VERSE 7
इच्छा और घृणा, सुख और दुख, शरीर, चेतना और इच्छा शक्ति ये सब कार्य क्षेत्र में सम्मिलित हैं तथा इसके विकार हैं। श्रीकृष्ण अब क्षेत्र के गुणों और उसके विकारों को स्पष्ट करते हैं।
VERSE 8
नम्रता, आडंबरों से मुक्ति, अहिंसा, क्षमा, सादगी, गुरु की सेवा, मन और शरीर की शुद्धता, दृढ़ता और आत्मसंयम
VERSE 9
इन्द्रिय विषयों के प्रति उदासीनता, अहंकार रहित होना, जन्म, रोग, बुढ़ापा और मृत्यु की बुराईयों पर ध्यान देना
VERSE 10
अनासक्ति, स्त्री, पुरुष, बच्चों और घर सम्पत्ति आदि वस्तुओं के प्रति ममता रहित होना। जीवन में वांछित और अवांछित घटनाओं के प्रति समभाव
VERSE 11
मेरे प्रति अनन्य और अविरल भक्ति, एकान्त स्थानों पर रहने की इच्छा, लौकिक समुदाय के प्रति विमुखता
VERSE 12
आध्यात्मिक ज्ञान में स्थिरता और परम सत्य की तात्त्विक खोज, इन सबको मैं ज्ञान घोषित करता हूँ और जो भी इसके प्रतिकूल हैं उसे मैं अज्ञान कहूँगा।
VERSE 13
अब मैं तुम्हें वह बताऊंगा कि जो जानने योग्य है और जिसे जान लेने के पश्चात कोई अमरत्व प्राप्त कर लेता है। यह अनादि ब्रह्म है जो अस्तित्त्व और अस्तित्त्वहीन से परे है।
VERSE 14
भगवान के हाथ, पाँव, नेत्र, सिर, तथा मुख सर्वत्र हैं। उनके कान भी सभी ओर हैं क्योंकि वे ब्रह्माण्ड की प्रत्येक वस्तु में व्याप्त हैं।
VERSE 15
यद्यपि वे समस्त इन्द्रिय विषयों के गोचर हैं फिर भी इन्द्रिय रहित रहते हैं। वे सभी के प्रति अनासक्त होकर भी सभी जीवों के पालनकर्ता हैं। यद्यपि वे निर्गुण है फिर भी प्रकृति के तीनों गुणों के भोक्ता हैं।
VERSE 16
भगवान सभी के भीतर एवं बाहर स्थित हैं चाहे वे चर हों या अचर। वे सूक्ष्म हैं और इसलिए वे हमारी समझ से परे हैं। वे अत्यंत दूर हैं लेकिन वे सबके निकट भी हैं।
VERSE 17
यद्यपि भगवान सभी जीवों के बीच विभाजित प्रतीत होता है किन्तु वह अविभाजित है। यह समझना होगा कि परमात्मा सबका पालनकर्ता, संहारक और सभी जीवों का जनक है।
VERSE 18
वे समस्त प्रकाशमयी पदार्थों के प्रकाश स्रोत हैं, वे सभी प्रकार की अज्ञानता के अंधकार से परे हैं। वे ज्ञान हैं, वे ज्ञान का विषय हैं और ज्ञान का लक्ष्य हैं। वे सभी जीवों के हृदय में निवास करते हैं।
VERSE 19
इस प्रकार मैंने तुम्हें कर्म क्षेत्र की प्रकृति, ज्ञान का अर्थ और ज्ञान के लक्ष्य की जानकारी को प्रकट किया है। इसे वास्तव में केवल मेरे भक्त ही पूर्णतः समझ सकते हैं और इसे जानकर वे मेरी दिव्य प्रकृति को प्राप्त होते हैं।
VERSE 20
प्रकृति और पुरुष (जीवात्मा) दोनों अनादि हैं। यह भी जान लो कि शरीर में होने वाले सभी परिवर्तन और प्रकृति के तीनों गुणों की उत्पत्ति प्राकृत शक्ति से होती है।
VERSE 21
सृष्टि के विषय में प्राकृत शक्ति ही कारण और परिणाम के लिए उत्तरदायी है और सुख-दुख की अनुभूति हेतु जीवात्मा को उत्तरदायी बताया जाता है।
VERSE 22
पुरुष अर्थात जीव प्रकृति में स्थित हो जाता है, प्रकृति के तीनों गुणों के भोग की इच्छा करता है, उनमें आसक्त हो जाने के कारण उत्तम और अधम योनियों में जन्म लेता है।
VERSE 23
इस शरीर में परमेश्वर भी रहता है। उसे साक्षी, अनुमति प्रदान करने वाला, सहायक, परम भोक्ता, परम नियन्ता और परमात्मा कहा जाता है।
VERSE 24
वे जो परमात्मा, जीवात्मा और प्रकृति के सत्य और तीनों गुणों की अन्तःक्रिया को समझ लेते हैं वे पुनः जन्म नहीं लेते। उनकी वर्तमान स्थिति चाहे जैसी भी हो वे मुक्त हो जाते हैं।
VERSE 25
कुछ लोग ध्यान द्वारा अपने हृदय में बैठे परमात्मा को देखते हैं और कुछ लोग ज्ञान के संवर्धन द्वारा जबकि कुछ अन्य लोग कर्म योग द्वारा देखने का प्रयत्न करते हैं।
VERSE 26
कुछ अन्य लोग ऐसे भी होते हैं जो आध्यात्मिक मार्ग से अनभिज्ञ होते हैं लेकिन वे अन्य संत पुरुषों से श्रवण कर भगवान की आराधना करने लगते हैं। वे भी धीरे-धीरे जन्म और मृत्यु के सागर को पार कर लेते हैं।
VERSE 27
हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ! चर और अचर जिनका अस्तित्व तुम्हें दिखाई दे रहा है वह कर्म क्षेत्र और क्षेत्र के ज्ञाता का संयोग मात्र है।
VERSE 28
जो परमात्मा को सभी जीवों में आत्मा के साथ देखता है और जो इस नश्वर शरीर में दोनों को अविनाशी समझता है केवल वही वास्तव में समझता है।।
VERSE 29
वे जो भगवान को सर्वत्र और सभी जीवों में समान रूप से स्थित देखते हैं वे अपने मन से स्वयं को निम्नीकृत नहीं करते। इस प्रकार से वे अपने परम गंतव्य को प्राप्त करते हैं।
VERSE 30
जो यह समझ लेते हैं कि शरीर के समस्त कार्य प्राकृत शक्ति द्वारा सम्पन्न होते हैं जबकि देहधारी आत्मा वास्तव में कुछ नहीं करती। केवल वही वास्तव में देखते हैं।
VERSE 31
जब वे विविध प्रकार के प्राणियों को एक ही परम शक्ति परमात्मा में स्थित देखते हैं और उन सबको उसी से जन्मा समझते हैं तब वे ब्रह्म का ज्ञान प्राप्त करते हैं।
VERSE 32
परमात्मा अविनाशी है और इसका कोई आदि नहीं है और प्रकृति के गुणों से रहित है। हे कुन्ति पुत्र! यद्यपि यह शरीर में स्थित है किन्तु यह न तो कर्म करता है और न ही प्राकृत शक्ति से दूषित होता है।
VERSE 33
अंतरिक्ष सबको अपने में धारण कर लेता है लेकिन सूक्ष्म होने के कारण जिसे यह धारण किए रहता है उसमें लिप्त नहीं होता। इसी प्रकार से यद्यपि आत्मा चेतना के रूप में पूरे शरीर में व्याप्त रहती है फिर भी आत्मा शरीर के धर्म से प्रभावित नहीं होती।
VERSE 34
जिस प्रकार से एक सूर्य समस्त ब्रह्माण्ड को प्रकाशित करता है उसी प्रकार से आत्मा चेतना शक्ति के साथ पूरे शरीर को प्रकाशित करती है।
VERSE 35
जो लोग ज्ञान चक्षुओं से शरीर और शरीर के ज्ञाता के बीच के अन्तर और प्राकृतिक शक्ति के बन्धनों से मुक्त होने की विधि जान लेते हैं, वे परम लक्ष्य प्राप्त कर लेते हैं।