VERSE 1
पुरुषोतम भगवान ने कहाः ऐसा कहा गया है कि शाश्वत अश्वत्थ वृक्ष की जड़ें ऊपर की ओर तथा इसकी शाखाएँ नीचे की ओर होती हैं। इसके पत्ते वैदिक स्रोत हैं और जो इस वृक्ष के रहस्य को जान लेता है उसे वेदों का ज्ञाता कहते हैं।
VERSE 2
इस वृक्ष की शाखाएँ ऊपर तथा नीचे की ओर फैलती हैं और इन्द्रिय विषयों के साथ कोमल कोंपलों के समान तीनों गुणों द्वारा पोषित होती हैं। वृक्ष की जड़ें नीचे की ओर भी लटकी होती हैं जिसके कारण मानव जन्म में कर्मों का प्रवाह होता है। इसकी नीचे के ओर की जड़ों की शाखाएँ संसार में मानव जाति के कर्मों का कारण हैं।
VERSE 3
इस संसार में इस वृक्ष के वास्तविक स्वरूप का बोध नहीं हो सकता और न ही इसके आदि, अंत और निरन्तर अस्तित्व को जाना जा सकता है। अतः इस गहन जड़ों वाले अश्वत्थ वृक्ष को विरक्ति रूपी सशक्त शस्त्र से काट देना चाहिए
VERSE 4
तभी कोई इसके आधार को जान सकता है जो कि परम प्रभु हैं जिनसे ब्रह्माण्ड की गतिविधियों का अनादिकाल से प्रवाह हुआ है और उनकी शरण ग्रहण करने पर फिर कोई इस संसार में लौट कर नहीं आता।
VERSE 5
वे जो अभिमान और मोह से मुक्त रहते हैं एवं जिन्होंने आसक्ति की बुराई पर विजय पा ली है, जो निरन्तर अपनी आत्मा और भगवान में लीन रहते हैं, जो इन्द्रिय भोग की कामना से मुक्त रहते हैं और सुख-दुख के द्वन्द्वों से परे हैं, ऐसे मुक्त जीव मेरा नित्य ध मि प्राप्त करते हैं।
VERSE 6
न तो सूर्य, न ही चन्द्रमा और न ही अग्नि मेरे सर्वोच्च लोक को प्रकाशित कर सकते हैं। वहाँ जाकर फिर कोई पुनः इस भौतिक संसार में लौट कर नहीं आता।
VERSE 7
इस भौतिक संसार की आत्माएँ मेरा शाश्वत अणु अंश हैं लेकिन प्राकृत शक्ति के बंधन के कारण वे मन सहित छः इन्द्रियों के साथ संघर्ष करती हैं।
VERSE 8
जिस प्रकार से वायु सुगंध को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाती है उसी प्रकार से देहधारी आत्मा जब पुराने शरीर का त्याग करती है और नये शरीर में प्रवेश करती है उस समय वह अपने साथ मन और इन्द्रियों को भी ले जाती है।
VERSE 9
कान, आंख, त्वचा, जिह्वा और नासिका के इन्द्रिय बोध जो मन के चारों ओर समूहबद्ध हैं, के साथ देहधारी आत्मा इन्द्रिय विषयों का भोग करती है।
VERSE 10
अज्ञानी आत्मा का अनुभव नहीं कर पाते जबकि यह शरीर में रहती है और इन्द्रिय विषयों का भोग करती है और न ही उन्हें इसके शरीर से प्रस्थान करने का बोध होता है लेकिन वे जिनके नेत्र ज्ञान से युक्त होते हैं वे इसे देख सकते हैं।
VERSE 11
भगवद्प्राप्ति के लिए प्रयासरत योगी यह जानने में समर्थ हो जाते हैं कि आत्मा शरीर में प्रतिष्ठित है किन्तु जिनका मन शुद्ध नहीं है वे प्रयत्न करने के बावजूद भी इसे जान नहीं सकते।
VERSE 12
यह जान लो कि मैं सूर्य के तेज के समान हूँ जो पूरे ब्रह्माण्ड को प्रकाशित करता है। सूर्य का तेज और अग्नि की दीप्ति मुझसे ही उत्पन्न होती है।
VERSE 13
पृथ्वी पर व्याप्त रहकर मैं सभी जीवों को अपनी शक्ति से पोषित करता हूँ। चन्द्रमा के रूप में मैं सभी पेड़-पौधों और वनस्पतियों को जीवन रस प्रदान करता हूँ।
VERSE 14
मैं सभी जीवों के उदर में पाचन अग्नि के रूप में रहता हूँ, भीतरी श्वास और प्रश्वास के संयोजन से चार प्रकार के भोजन को मिलाता और पचाता हूँ।
VERSE 15
मैं समस्त जीवों के हृदय में निवास करता हूँ और मुझसे ही स्मृति, ज्ञान और विस्मृति आती है। केवल मैं ही सभी वेदों द्वारा जानने योग्य हूँ, मैं वेदांत का रचयिता और वेदों का अर्थ जानने वाला हूँ।
VERSE 16
सृष्टि में दो प्रकार के जीव हैं-क्षर और अक्षर। भौतिक जगत के सभी जीव नश्वर हैं और मुक्त जीव अविनाशी हैं।
VERSE 17
इनके अतिरिक्त एक परम सर्वोच्च व्यक्तित्व है जो अक्षय परमात्मा है। वह तीनों लोकों में अपरिवर्तनीय नियंता के रूप में प्रवेश करता है और सभी जीवों का पालन पोषण करता है।
VERSE 18
मैं नश्वर सांसारिक पदार्थों और यहाँ तक कि अविनाशी आत्मा से भी परे हूँ इसलिए मैं वेदों और स्मृतियों दोनों में ही दिव्य परम पुरूष के रूप में विख्यात हूँ।
VERSE 19
वे जो संशय रहित होकर मुझे परम दिव्य भगवान के रूप में जानते हैं, वास्तव में वे पूर्ण ज्ञान से युक्त हैं। हे अर्जुन! वे पूर्ण रूप से मेरी भक्ति में तल्लीन रहते हैं।
VERSE 20
हे निष्पाप अर्जुन! मैंने तुम्हें वैदिक ग्रंथों का अति गुह्य सिद्धान्त समझाया है। इसे समझकर मनुष्य प्रबुद्ध हो जाता है और अपने प्रयासो में परिपूर्ण हो जाता है।