निर्वाण उपनिषद हिन्दू मठवासी जीवन और संन्यासी के चरित्र और अस्तित्व को विस्तार से वर्णित करता है। यह उपनिषद संन्यासी की बाहरी और आंतरिक स्थिति का वर्णन करता है, लेकिन संन्यास के पूर्व जीवन, योग्यता या संस्कार के किसी भी पहलू पर चर्चा नहीं करता। इसकी सूत्र-शैली से यह अनुमान लगाया जाता है कि इसकी रचना पहली सहस्राब्दी ईसा पूर्व की अंतिम शताब्दी में हुई थी और इसे उपनिषद के रूप में संकलित और वर्गीकृत होने से पहले सूत्र पाठ अवधि में शामिल किया गया था। संभवतः इसका संकलन आम युग की शुरुआत के आसपास की सदियों में हुआ था।
निर्वाण उपनिषद, ॠग्वेद से संबंधित है और जीवन के परम लक्ष्य तथा आवागमन से मुक्त होने के साधन 'निर्वाण' या 'मोक्ष' पर विस्तृत विवेचन प्रस्तुत करता है। इसमें परमहंस-संन्यासी के गूढ़ सिद्धांतों को सूत्रात्मक पद्धति द्वारा समझाया गया है।
निर्वाण उपनिषद में 'निर्वाण' के तत्त्वदर्शन का निरूपण भी शामिल है। इसमें बताया गया है कि यह तत्त्वदर्शन किसे देना चाहिए और किसे नहीं, और यह भी स्पष्ट किया गया है कि सामान्य जन को इस तत्त्वदर्शन से कोई लाभ नहीं होता।
इस प्रकार, निर्वाण उपनिषद संन्यासी के जीवन के विभिन्न पहलुओं का गहन विश्लेषण प्रस्तुत करता है और मोक्ष की प्राप्ति के मार्ग को समझने के लिए एक महत्वपूर्ण स्रोत है।