कैवल्य उपनिषद एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है, जो परम स्वतंत्रता और आत्मज्ञान की प्राप्ति पर केंद्रित है। 'कैवल्य' का अर्थ है: ऐसा क्षण आना जब चेतना में मैं पूर्णतया अकेला रह जाऊं, लेकिन मुझे अकेलापन न लगे। एकाकी हो जाऊं, फिर भी मुझे दूसरे की अनुपस्थिति की पीड़ा न हो। यह उपनिषद साधकों के लिए आत्म-साक्षात्कार और ब्रह्मानुभूति का मार्गदर्शन प्रदान करता है।
कैवल्य उपनिषद कृष्ण यजुर्वेदीय शाखा का हिस्सा है।
इसमें 146 श्लोक चार अध्यायों में व्यवस्थित हैं।
यह संस्कृत भाषा में लिखा गया है और चिंतन के लिए अत्यंत उपयुक्त है।
विद्वानों के बीच रचनाकाल को लेकर एकमत नहीं है।
सामान्यतः उपनिषदों का रचनाकाल 3000 ईसा पूर्व से 500 ईसा पूर्व माना जाता है।
यह उपनिषद 'ब्राह्मण' और 'आरण्यक' ग्रंथों के अंश माने जाते हैं।
ब्रह्मा द्वारा महर्षि आश्वलायन को 'कैवल्य पद-प्राप्ति' का मर्म समझाया गया है।
ब्रह्मविद्या की प्राप्ति कर्म, धन-धान्य या संतान के द्वारा असंभव है।
इसे श्रद्धा, भक्ति, ध्यान और योग के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।
महर्षि आश्वलायन के पूछने पर ब्रह्मा जी ने बताया कि परम तत्व को श्रद्धा, भक्ति, ध्यान और योगाभ्यास द्वारा ही जाना जा सकता है। इसे न कर्म से, न संतान से, और न ही धन से पाया जा सकता है। केवल योगीजन ही इसे प्राप्त कर सकते हैं। यह परम पुरुष ब्रह्मा, शिव, और इन्द्र के रूप में अभिव्यक्त होता है और ओंकार स्वरूप परब्रह्म के रूप में भी जाना जाता है। यह विष्णु, प्राणतत्व, कालाग्नि, आदित्य और चन्द्रमा के रूप में भी विद्यमान है।
कैवल्य उपनिषद में यह शिक्षा दी जाती है कि जो साधक अपनी आत्मा को सभी प्राणियों में देखता है और सभी प्राणियों को अपनी आत्मा में देखता है, वही 'कैवल्य पद' प्राप्त करता है। यही आत्मा का साक्षात्कार है। जाग्रत, स्वप्न, और सुषुप्ति, तीनों अवस्थाओं में जो भी भोग-रूप में है, उनसे तटस्थ साक्षी-रूप में सदाशिव ही स्वंय उपस्थित हैं।
हे मुनिवर! उस अतिश्रेष्ठ परात्पर तत्व को श्रद्धा, भक्ति, ध्यान और योगाभ्यास द्वारा जाना जा सकता है।
"जो मनुष्य अपनी आत्मा को समस्त प्राणियों के समान देखता है और समस्त प्राणियों में अपनी आत्मा का दर्शन करता है, वही साधक 'कैवल्य पद' प्राप्त करता है।"
मैं अणु से भी अणु हूं, अर्थात परमाणु हूं। मैं स्वयं विराट पुरुष हूं और विचित्रताओं से भरा यह सम्पूर्ण विश्व मेरा ही स्वरूप है।
मैं पुरातन पुरुष हूं, मैं ही ईश्वर हूं, मैं ही हिरण्यगर्भ हूं और मैं ही शिव-रूप परमतत्व हूं।
कैवल्य उपनिषद साधकों को आत्म-साक्षात्कार और ब्रह्मानुभूति की ओर प्रेरित करता है। यह उपनिषद समझाता है कि कैवल्य पद की प्राप्ति केवल श्रद्धा, भक्ति, ध्यान, और योग द्वारा संभव है। इसमें आत्मा और ब्रह्म की अभिन्नता का गहन विश्लेषण किया गया है, जो साधकों के लिए जीवन में शांति और स्वतंत्रता की प्राप्ति का मार्गदर्शन प्रदान करता है।