ईशावास्योपनिषद् शुक्ल यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय का हिस्सा है और इसे 108 उपनिषदों में प्रथम स्थान प्राप्त है। इसमें ईश्वर के गुणों, आत्मा के स्वरूप और अधर्म त्याग का वर्णन किया गया है। यह उपनिषद मात्र 18 मंत्रों का संग्रह है, जिनमें ब्रह्म, उपासना, प्रार्थना और आत्म-ज्ञान का वर्णन किया गया है। इसे वेदांत का निचोड़ माना जाता है, और इसका तात्पर्य ज्ञान के द्वारा मोक्ष की प्राप्ति है।
ईशावास्योपनिषद में प्रारंभिक मंत्र "ईशावास्यमिदं सर्वम्" के कारण इसका नामकरण हुआ है। इसमें बताया गया है कि यह संपूर्ण जगत ईश्वर का आवास है। हर जगह ईश्वर का दर्शन करने वाला साधक निष्काम बनता है और किसी दूसरे के धन की इच्छा नहीं रखता। अपना सब कुछ ईश्वर को अर्पण करके आनंद प्राप्त करता है। इस उपनिषद में यह समझाया गया है कि किसी पदार्थ का भोग करने से क्षणिक आनंद मिलता है, जबकि त्याग का आनंद शाश्वत और सात्विक होता है।
उपनिषद का मुख्य संदेश है कि ब्रह्म और आत्म-ज्ञान के द्वारा मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है। इसमें सत्कर्मों की महत्ता पर भी जोर दिया गया है। श्रीमद् भगवद्गीता के 18 अध्यायों की तरह, ईशावास्योपनिषद के 18 श्लोक भी महत्वपूर्ण माने जाते हैं। इसमें बताया गया है कि परमेश्वर का साक्षात्कार करने के लिए व्यक्ति को अपने अंत:करण में झांकना चाहिए और शरीर की नश्वरता को समझना चाहिए।
ईशावास्योपनिषद एक छोटा लेकिन अत्यंत महत्वपूर्ण उपनिषद है, जो ज्ञान, आत्म-ज्ञान, और मोक्ष के मार्ग पर चलने का मार्गदर्शन प्रदान करता है। इसमें ईश्वर के सूक्ष्म स्वरूप, अधर्म त्याग, और निष्काम कर्म की महत्ता को विस्तार से समझाया गया है। सभी उपनिषदों में छोटा होने के बावजूद, इसमें एक गहरी और सूक्ष्म दृष्टि का परिचय मिलता है।