ऐतरेयोपनिषद एक प्रमुख उपनिषद है जो वेदांत दर्शन के अंतर्गत आता है और यह ऋग्वेद के ऐतरेयारण्यक के दूसरे आरण्यक के चौथे, पांचवें और छठे अध्याय का हिस्सा है। इसमें ब्रह्मविद्या (ब्रह्म का ज्ञान) के महत्वपूर्ण सिद्धांतों का विस्तार से वर्णन किया गया है। इस उपनिषद में आत्मा, ब्रह्म, जगत और मनुष्य के जीवन के महत्वपूर्ण विषयों पर विचार किया गया है।
भगवान शंकराचार्य ने इस उपनिषद पर महत्वपूर्ण भाष्य लिखा है, जिसमें उन्होंने मोक्ष प्राप्ति के साधन के रूप में केवल ज्ञान को महत्व दिया है और कर्मकाण्ड के अधिकार को नकारते हुए संन्यास को इसका अधिकारी ठहराया है।
ऐतरेयोपनिषद में तीन अध्याय हैं। पहले अध्याय में तीन खंड हैं, जबकि दूसरे और तीसरे अध्याय में केवल एक-एक खंड है।
सृष्टि के आरंभ में केवल एक आत्मा ही विद्यमान थी, जिसने संकल्प किया और अम्भ, मरीचि और मर नामक तीन लोकों की रचना की।
परमात्मा ने जल से एक पुरुष की रचना की और उसे अवयवयुक्त किया।
देवताओं की भूख मिटाने के लिए अन्न की उत्पत्ति की गई।
आत्मज्ञान को परम पद प्राप्ति का एकमात्र साधन बताया गया है।
प्रज्ञान की महिमा का वर्णन किया गया है और इसे ब्रह्म, इन्द्र, प्रजापति, समस्त देवगण, पंचमहाभूत तथा समस्त जीव-जन्तुओं का स्वरूप बताया गया है।
अम्भ: द्युलोक से परे स्वर्ग की प्रतिष्ठा वाला लोक।
मरीचि: अन्तरिक्ष या प्रकाश लोक (द्युलोक)।
मर: पृथिवी या मृत्युलोक।
आप: पृथिवी के नीचे जलीय गर्भ, पाताललोक।
इस खंड में मानव-शरीर की उत्पत्ति और उसकी संरचना का वर्णन है।
देवताओं की भूख मिटाने के लिए अन्न की उत्पत्ति की गई।
मनुष्य के तीन जन्मों का वर्णन है: शारीरिक जन्म, मानसिक जन्म और आध्यात्मिक जन्म।
आत्मा का स्वरूप और उसकी पहचान का विस्तृत वर्णन किया गया है।
ऐतरेयोपनिषद आत्मा और ब्रह्म के गहन ज्ञान को प्रस्तुत करता है। यह उपनिषद आत्मा की अद्वितीयता और उसके परमात्मा के साथ अभिन्न संबंध को बताता है। शंकराचार्य का भाष्य इस उपनिषद के महत्व को और भी बढ़ाता है, जिसमें मोक्ष प्राप्ति के लिए ज्ञान को सर्वोपरि माना गया है।